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Tuesday, March 24, 2009

ये नासमझ मन

दूर से चमकीली रेत भी पानी नज़र आती है,

मुरझाएं गुलाब की पत्तिया भी भीनी खुशबु छोड़ जाती है ।

रिश्तें छूट जातें है, नाते टूट जातें है,

पर उनकी याद हमेशा दिल में रह जाती है ।

आगे बढ़कर पीछे मुड़ना मेरी फितरत नही ,

फिर क्यों उस कल को सामने देख आँखे नम हो जाती है ।

शायद वो गम नही वो खुशिया याद आ जाती है ।

इसी कशमकश में क्या याद रखु क्या भूलू हर रात बीत जाती है ।

सुबह के सन्नाटें में चिडिया की चहचाहट फिर एक उम्मीद जगाती है ,

कल की मुस्कराहट को याद कर ,उस दर्द को भूल जा , अपने आज को सवार , आनेवाले कल के लिए नई यादों को सजा, यही अक्ल दोहराती है ,

पर इस नासमझ मनन की हलचल का क्या करू , जो फिर मुझे उस बीतें कल में छोड़ आती है ।**



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